1.1.109

चौपाई
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ।।
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू।।
मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई।।
तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा।।
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें।।
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा।।
तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं।।
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा।।

दोहा/सोरठा
बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि।।109।।

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