चौपाई
तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई।।
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना।।
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा।।
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला।।
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी।।
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना।।
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती।।
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला।।
दोहा/सोरठा
रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि।।113।।