1.1.173

चौपाई
उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई।।
मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई।।
बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा।।
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए।।
परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला।।
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू।।
भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू।।
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस आव मुख बानी।।

दोहा/सोरठा
बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार।।173।।

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