1.1.237

चौपाई
हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई।।
राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं।।
सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही।।
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे।।
करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी।।
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई।।
प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा।।
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं।।

दोहा/सोरठा
जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक।।237।।

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