1.1.253

चौपाई
रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई।।
कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी।।
सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू।।
जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं।।
काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी।।
तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना।।
नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ।।
कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं।।

दोहा/सोरठा
तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ।।253।।

Kaanda: 

Type: 

Language: 

Verse Number: