चौपाई
बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें।।
करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा।।
छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही।।
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ।।
गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू।।
टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू।।
राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा।।
जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी।।
दोहा/सोरठा
प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु।।281।।