1.1.283

चौपाई
निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही।।
चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु।।
समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई।।
मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे।।
मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें।।
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा।।
राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी।।
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना।।

दोहा/सोरठा
जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ।।283।।

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