1.1.307

चौपाई
निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती।।
बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना।।
सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी।।
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई।।
सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं।।
बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी।।
हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए।।
चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे।।

दोहा/सोरठा
भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।
उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत।।307।।

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