1.1.314

चौपाई
सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना।।
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा।।
प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू।।
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे।।
चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना।।
नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना।।
तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं।।
बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी।।

दोहा/सोरठा
सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु।।314।।

Kaanda: 

Type: 

Language: 

Verse Number: