1.1.317

चौपाई
जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा।।
संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे।।
हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे।।
निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने।।
सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू।।
रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना।।
देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं।।
मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी।।

छंद
अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी।।
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं।।

दोहा/सोरठा
सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि।।317।।

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