1.1.327

चौपाई
स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन।।
जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए।।
पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती।।
कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर।।
पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई।।
सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे।।
पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती।।
नयन कमल कल कुंडल काना। बदनु सकल सौंदर्ज निधाना।।
सुंदर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा।।
सोहत मौरु मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता मनि गाथे।।

छंद
गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।
पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं।।
मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहिं।
सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं।।1।।
कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै।।
लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं।।2।।
निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।
चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी।।
कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं।।3।।
तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा।।
जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी।
चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी।।4।।

दोहा/सोरठा
सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।
सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास।।327।।

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