1.1.79

चौपाई
दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई।।
चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला।।
नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी।।
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा।।
तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा।।
निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली।।
कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ।।
पंच कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही।।

दोहा/सोरठा
अब सुख सोवत सोचु नहि भीख मागि भव खाहिं।
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं।।79।।

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