1.2.165

चौपाई
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए।।
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई।।
देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई।।
माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पौंछि मृदु बचन उचारे।।
अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमउ समुझि सोक परिहरहू।।
जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानि।।
काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता।।
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा।।

दोहा/सोरठा
पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर। 165।।

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