1.2.173

चौपाई
बैखानस सोइ सोचै जोगु। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू।।
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी।।
सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी।।
सोचनीय सबहि बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई।।
सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ।।
भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा।।
बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा।।

दोहा/सोरठा
कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु।
राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु।।173।।

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