1.2.181

चौपाई
कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई।।
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई।।
तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका।।
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही।।
मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई।।
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं।।
परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिनु मोर नहि दूषन काहू।।
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू।।

दोहा/सोरठा
राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि।।181।

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