चौपाई
नहिं अचिरजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई।।
राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवधलोग सुखु लहहीं।।
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा।।
देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू।।
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा।।
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी।।
कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी।।
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मंगल मोरें।।
दोहा/सोरठा
समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ।।195।।