चौपाई
जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा।।
सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई।।
चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी।।
भाइहि सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई।।
चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीर सनेह न थोरें।।
पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ।।
जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए।।
भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू।।
दोहा/सोरठा
जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु।
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु।।198।।