1.2.227

चौपाई
बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू।।
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी।।
सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू।।
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाही।।
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने।।
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू।।
बिनु पूँछ कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाई।।
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी।।

दोहा/सोरठा
नाथ सुह्रद सुठि सरल चित सील सनेह निधान।।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान।।227।।

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