1.2.241

चौपाई
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी।।
परम पेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई।।
कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई।।
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा।।
अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को।।
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती।।
मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी।।
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे।।

दोहा/सोरठा
मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम।
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम।।241।।

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