1.2.258

चौपाई
आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जूआरिहि आपन दाऊ।।
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ।।
सब कर हित रुख राउरि राखें। आयसु किएँ मुदित फुर भाषें।।
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथें मानि करौ सिख सोई।।
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईं। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईं।।
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा।।
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी।।
मोरें जान भरत रुचि राखि। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी।।

दोहा/सोरठा
भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि।।258।।

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