1.2.259

चौपाई
गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम ह्दयँ आनंदु बिसेषी।।
भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी।।
बोले गुर आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला।।
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई।।
जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी।।
राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू।।
लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई।।
भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई।।

दोहा/सोरठा
तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात।।259।।

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