1.2.271

चौपाई
कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोक बस बौरा।।
जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू।।
रानि कुचालि सुनत नरपालहि। सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि।।
भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू।।
नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू।।
समुझि अवध असमंजस दोऊ। चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ।।
नृपहि धीर धरि हृदयँ बिचारी। पठए अवध चतुर चर चारी।।
बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ।।

दोहा/सोरठा
गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति।
चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति।।271।।

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