चौपाई
भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा।।
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनाम रथ त्यागेउ तबहीं।।
राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू।।
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही।।
आवत जनकु चले एहि भाँती। सहित समाज प्रेम मति माती।।
आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परसपर लागे।।
लगे जनक मुनिजन पद बंदन। रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन।।
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि। चले लवाइ समेत समाजहि।।
दोहा/सोरठा
आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु।
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु।।275।।