1.2.305

चौपाई
जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती।।
समउ समाजु लाज गुरुजन की। उदासीन हित अनहित मन की।।
तुम्हहि बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू।।
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा।।
तात तात बिनु बात हमारी। केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी।।
नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू।।
जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू। जग केहि कहहु न होइ कलेसू।।
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा।।

दोहा/सोरठा
राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम।।305।।

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