चौपाई
भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई।।
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू।।
पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा।।
तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू।।
तब सेवकन्ह सरस थलु देखा। किन्ह सुजल हित कूप बिसेषा।।
बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू। सुगम अगम अति धरम बिचारू।।
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा।।
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी।।
दोहा/सोरठा
कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ।
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ।।310।।