1.2.326

चौपाई
पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू। जीह नामु जप लोचन नीरू।।
लखन राम सिय कानन बसहीं। भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं।।
दोउ दिसि समुझि कहत सबु लोगू। सब बिधि भरत सराहन जोगू।।
सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं। देखि दसा मुनिराज लजाहीं।।
परम पुनीत भरत आचरनू। मधुर मंजु मुद मंगल करनू।।
हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू।।
पाप पुंज कुंजर मृगराजू। समन सकल संताप समाजू।
जन रंजन भंजन भव भारू। राम सनेह सुधाकर सारू।।

छंद
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को।।
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को।।

दोहा/सोरठा
भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं।
सीय राम पद पेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।326।।

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