1.2.61

चौपाई
मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं।।
राजकुमारि सिखावन सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू।।
आपन मोर नीक जौं चहहू। बचनु हमार मानि गृह रहहू।।
आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई।।
एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा।।
जब जब मातु करिहि सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी।।
तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी।।
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ तोही।।

दोहा/सोरठा
गुर श्रुति संमत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस।
हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस।।61।।

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