1.2.71

चौपाई
अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई।।
भवन भरतु रिपुसूदन नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं।।
मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा। होइ सबहि बिधि अवध अनाथा।।
गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू।।
रहहु करहु सब कर परितोषू। नतरु तात होइहि बड़ दोषू।।
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।।
रहहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी।।
सिअरें बचन सूखि गए कैंसें। परसत तुहिन तामरसु जैसें।।

दोहा/सोरठा
उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ।
नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ।।71।।

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