चौपाई
सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई।।
मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी।।
नृपहि प्रान प्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाड़िहि भीरा।।
सुकृत सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ।।
अस बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुखु पावा।।
भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे।।
लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न काहू।।
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई।।
दोहा/सोरठा
सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत।
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत।।79।।