1.2.85

चौपाई
रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी।।
करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई।।
कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहुबिधि राम लोग समुझाए।।
किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे।।
सीलु सनेहु छाड़ि नहिं जाई। असमंजस बस भे रघुराई।।
लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछुक देवमायाँ मति मोई।।
जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती।।
खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता।।

दोहा/सोरठा
राम लखन सुय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ।।
सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ।।85।।

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