1.3.14

चौपाई
जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा।।
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए।।
खग मृग बृंद अनंदित रहहीं। मधुप मधुर गंजत छबि लहहीं।।
सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा।।
एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना।।
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई।।
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा।।
कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया।।

दोहा/सोरठा
ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ।।14।।

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