1.3.31

चौपाई
तब कह गीध बचन धरि धीरा । सुनहु राम भंजन भव भीरा।।
नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही।।
लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाई। बिलपति अति कुररी की नाई।।
दरस लागी प्रभु राखेंउँ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना।।
राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसकाइ कही तेहिं बाता।।
जा कर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होई श्रुति गावा।।
सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगें।।
जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज ते गतिं पाई।।
परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं।।
तनु तजि तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा।।

दोहा/सोरठा
सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ।।31।।

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