1.3.37

चौपाई
चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ।।
बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक संबादा।।
लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा। देखत केहि कर मन नहिं छोभा।।
नारि सहित सब खग मृग बृंदा। मानहुँ मोरि करत हहिं निंदा।।
हमहि देखि मृग निकर पराहीं। मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं।।
तुम्ह आनंद करहु मृग जाए। कंचन मृग खोजन ए आए।।
संग लाइ करिनीं करि लेहीं। मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं।।
सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ।।
राखिअ नारि जदपि उर माहीं। जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं।।
देखहु तात बसंत सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा।।

दोहा/सोरठा
बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल।
सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल।।37(क)।।
देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात।
डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात।।37(ख)।।

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