1.4.8

चौपाई
अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहि जानी।।
भिरे उभौ बाली अति तर्जा । मुठिका मारि महाधुनि गर्जा।।
तब सुग्रीव बिकल होइ भागा। मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा।।
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। बंधु न होइ मोर यह काला।।
एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ।।
कर परसा सुग्रीव सरीरा। तनु भा कुलिस गई सब पीरा।।
मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला।।
पुनि नाना बिधि भई लराई। बिटप ओट देखहिं रघुराई।।

दोहा/सोरठा
बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि।
मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि।।8।।

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