1.6.106

चौपाई
आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिंधु तब अनुज बोलायो।।
तुम्ह कपीस अंगद नल नीला। जामवंत मारुति नयसीला।।
सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा।।
पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ।।
तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना। कीन्ही जाइ तिलक की रचना।।
सादर सिंहासन बैठारी। तिलक सारि अस्तुति अनुसारी।।
जोरि पानि सबहीं सिर नाए। सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए।।
तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे। कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे।।

छंद
किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो।
पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो।।
मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं।
संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं।।

दोहा/सोरठा
प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कंज।।106।।

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