1.6.14

चौपाई
कंप न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।।
सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयंकर भारी।।
दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।।
सिरउ गिरे संतत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही।।
सयन करहु निज निज गृह जाई। गवने भवन सकल सिर नाई।।
मंदोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ।।
सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी।।
कंत राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ मन धरहू।।

दोहा/सोरठा
बिस्वरुप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।
लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।।14।।

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