1.6.24

चौपाई
धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा।।
नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करइ धर्म निपुनाई।।
अंगद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती।।
मैं गुन गाहक परम सुजाना। तव कटु रटनि करउँ नहिं काना।।
कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई।।
बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा।।
सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई।।
देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा।।
जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा।।
पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही।।
बालि बिमल जस भाजन जानी। हतउँ न तोहि अधम अभिमानी।।
कहु रावन रावन जग केते। मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते।।
बलिहि जितन एक गयउ पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला।।
खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई।।
एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा।।
कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा।।

दोहा/सोरठा
एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि की काँख।
इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख।।24।।

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