1.6.27

चौपाई
सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिंधु रघुराई।।
जौ खल भएसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही।।
मूढ़ बृथा जनि मारसि गाला। राम बयर अस होइहि हाला।।
तव सिर निकर कपिन्ह के आगें। परिहहिं धरनि राम सर लागें।।
ते तव सिर कंदुक सम नाना। खेलहहिं भालु कीस चौगाना।।
जबहिं समर कोपहि रघुनायक। छुटिहहिं अति कराल बहु सायक।।
तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा।।
सुनत बचन रावन परजरा। जरत महानल जनु घृत परा।।

दोहा/सोरठा
कुंभकरन अस बंधु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि।
मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेउँ चराचर झारि।।27।।

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