चौपाई
जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला।।
नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची।।
सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें।।
आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे।।
कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कोउ नाहीं।।
लाजवंत तव सहज सुभाऊ। निज मुख निज गुन कहसि न काऊ।।
सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कही।।
सो भुजबल राखेउ उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली।।
सुनु मतिमंद देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा।।
इंद्रजालि कहु कहिअ न बीरा। काटइ निज कर सकल सरीरा।।
दोहा/सोरठा
जरहिं पतंग मोह बस भार बहहिं खर बृंद।
ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमंद।।29।।