1.6.30

चौपाई
अब जनि बतबढ़ाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही।।
दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ। अस बिचारि रघुबीर पठायउँ।।
बार बार अस कहइ कृपाला। नहिं गजारि जसु बधें सृकाला।।
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे।।
नाहिं त करि मुख भंजन तोरा। लै जातेउँ सीतहि बरजोरा।।
जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी।।
तैं निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता।।
जौं न राम अपमानहि डरउँ। तोहि देखत अस कौतुक करऊँ।।

दोहा/सोरठा
तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ।
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ।।30।।

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