1.6.8

चौपाई
तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई।।
सुनु तै प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना।।
बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला।।
देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें।।
नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई।।
मंदोदरीं हदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना।।
सभाँ आइ मंत्रिन्ह तेंहि बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा।।
कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा।।
कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा।।

दोहा/सोरठा
सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि।
निति बिरोध न करिअ प्रभु मत्रिंन्ह मति अति थोरि।।8।।

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