1.7.111

चौपाई
तब मुनिष रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा।।
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानि। मोहि परम अधिकारी जानी।।
लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वेत अगुन हृदयेसा।।
अकल अनीह अनाम अरुपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा।।
मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी।।
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहि बेदा।।
बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा।।
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा।।
राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना।।
सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया।।
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा।।
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा।।
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी।।
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा।।
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ।।
अति संघरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई।।

दोहा/सोरठा
-बारंबार सकोप मुनि करइ निरुपन ग्यान।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिध अनुमान।।111(क)।।
क्रोध कि द्वेतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान।।111(ख)।।

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