1.7.53

चौपाई
राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं।।
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ।।
भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा।।
बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा।।
श्रवनवंत अस को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं।।
ते जड़ जीव निजात्मक घाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती।।
हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा। सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा।।
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई।।

दोहा/सोरठा
बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह।
बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह।।53।।

Kaanda: 

Type: 

Language: 

Verse Number: