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1.2.131

चौपाई
अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं।।
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका।।
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा।।
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।
जाति पाँति धनु धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई।।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना।।
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा।।

1.2.130

चौपाई
काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।।
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी।।
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।।
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।।

1.2.129

चौपाई
प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा।।
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं।।
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी।।
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहि दूजा।।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा।।
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना।।
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी।।

1.2.128

चौपाई
सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने।।
बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी।।
सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता।।
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे।।
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।।
तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक।।

1.2.127

चौपाई
जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे।।
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा।।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन।।
चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी।।
नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा।।
राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे।।
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा।।

1.2.125

चौपाई
मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा।।
देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने।।
मुनिबर अतिथि प्रानप्रिय पाए। कंद मूल फल मधुर मगाए।।
सिय सौमित्रि राम फल खाए। तब मुनि आश्रम दिए सुहाए।।
बालमीकि मन आनँदु भारी। मंगल मूरति नयन निहारी।।
तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई।।
तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा।।
अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी।।

दोहा/सोरठा

1.2.124

चौपाई
अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ। बसहुँ लखनु सिय रामु बटाऊ।।
राम धाम पथ पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहुँ मुनि कोई।।
तब रघुबीर श्रमित सिय जानी। देखि निकट बटु सीतल पानी।।
तहँ बसि कंद मूल फल खाई। प्रात नहाइ चले रघुराई।।
देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए।।
राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन।।
सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले।।
खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं।।

दोहा/सोरठा

1.2.123

चौपाई
आगे रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत काछें।।
उभय बीच सिय सोहति कैसे। ब्रह्म जीव बिच माया जैसे।।
बहुरि कहउँ छबि जसि मन बसई। जनु मधु मदन मध्य रति लसई।।
उपमा बहुरि कहउँ जियँ जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही।।
प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता।।
सीय राम पद अंक बराएँ। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ।।
राम लखन सिय प्रीति सुहाई। बचन अगोचर किमि कहि जाई।।
खग मृग मगन देखि छबि होहीं। लिए चोरि चित राम बटोहीं।।

दोहा/सोरठा

1.2.122

चौपाई
गाँव गाँव अस होइ अनंदू। देखि भानुकुल कैरव चंदू।।
जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं।।
कहहिं एक अति भल नरनाहू। दीन्ह हमहि जोइ लोचन लाहू।।
कहहिं परस्पर लोग लोगाईं। बातें सरल सनेह सुहाईं।।
ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए। धन्य सो नगरु जहाँ तें आए।।
धन्य सो देसु सैलु बन गाऊँ। जहँ जहँ जाहिं धन्य सोइ ठाऊँ।।
सुख पायउ बिरंचि रचि तेही। ए जेहि के सब भाँति सनेही।।
राम लखन पथि कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई।।

दोहा/सोरठा

1.2.121

चौपाई
नारि सनेह बिकल बस होहीं। चकई साँझ समय जनु सोहीं।।
मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी।।
परसत मृदुल चरन अरुनारे। सकुचति महि जिमि हृदय हमारे।।
जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा। कस न सुमनमय मारगु कीन्हा।।
जौं मागा पाइअ बिधि पाहीं। ए रखिअहिं सखि आँखिन्ह माहीं।।
जे नर नारि न अवसर आए। तिन्ह सिय रामु न देखन पाए।।
सुनि सुरुप बूझहिं अकुलाई। अब लगि गए कहाँ लगि भाई।।
समरथ धाइ बिलोकहिं जाई। प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई।।

दोहा/सोरठा

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