kishkindhakaanda

1.4.29

चौपाई
जो नाघइ सत जोजन सागर । करइ सो राम काज मति आगर ।।
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा । राम कृपाँ कस भयउ सरीरा।।
पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीं।।
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई। राम हृदयँ धरि करहु उपाई।।
अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ। तिन्ह कें मन अति बिसमय भयऊ।।
निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा।।
जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा।।
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी।।

दोहा/सोरठा

1.4.28

चौपाई
अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा।।
हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई । गगन गए रबि निकट उडाई।।
तेज न सहि सक सो फिरि आवा । मै अभिमानी रबि निअरावा ।।
जरे पंख अति तेज अपारा । परेउँ भूमि करि घोर चिकारा ।।
मुनि एक नाम चंद्रमा ओही। लागी दया देखी करि मोही।।
बहु प्रकार तेंहि ग्यान सुनावा । देहि जनित अभिमानी छड़ावा ।।
त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही। तासु नारि निसिचर पति हरिही।।
तासु खोज पठइहि प्रभू दूता। तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता।।

1.4.27

चौपाई
एहि बिधि कथा कहहि बहु भाँती गिरि कंदराँ सुनी संपाती।।
बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा।।
आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ। दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ।।
कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा। आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा।।
डरपे गीध बचन सुनि काना। अब भा मरन सत्य हम जाना।।
कपि सब उठे गीध कहँ देखी। जामवंत मन सोच बिसेषी।।
कह अंगद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कोउ नाहीं।।
राम काज कारन तनु त्यागी । हरि पुर गयउ परम बड़ भागी।।
सुनि खग हरष सोक जुत बानी । आवा निकट कपिन्ह भय मानी।।

1.4.26

चौपाई
इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं।।
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता।।
कह अंगद लोचन भरि बारी। दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी।।
इहाँ न सुधि सीता कै पाई। उहाँ गएँ मारिहि कपिराई।।
पिता बधे पर मारत मोही। राखा राम निहोर न ओही।।
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संसय नाहीं।।
अंगद बचन सुनत कपि बीरा। बोलि न सकहिं नयन बह नीरा।।
छन एक सोच मगन होइ रहे। पुनि अस वचन कहत सब भए।।
हम सीता कै सुधि लिन्हें बिना। नहिं जैंहैं जुबराज प्रबीना।।

1.4.25

चौपाई
दूरि ते ताहि सबन्हि सिर नावा। पूछें निज बृत्तांत सुनावा।।
तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुंदर फल नाना।।
मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए। तासु निकट पुनि सब चलि आए।।
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई।।
मूदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहि जनि पछिताहू।।
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा।।
सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा। जाइ कमल पद नाएसि माथा।।
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही। अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही।।

दोहा/सोरठा

1.4.24

चौपाई
कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा।।
बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोउ मुनि मिलत ताहि सब घेरहिं।।
लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलइ न जल घन गहन भुलाने।।
मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना।।
चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा। भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा।।
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं।।
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा।।
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा।।

1.4.23

चौपाई
सुनहु नील अंगद हनुमाना। जामवंत मतिधीर सुजाना।।
सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेउ सब काहू।।
मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचंद्र कर काजु सँवारेहु।।
भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी।।
तजि माया सेइअ परलोका। मिटहिं सकल भव संभव सोका।।
देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई।।
सोइ गुनग्य सोई बड़भागी । जो रघुबीर चरन अनुरागी।।
आयसु मागि चरन सिरु नाई। चले हरषि सुमिरत रघुराई।।
पाछें पवन तनय सिरु नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा।।

1.4.22

चौपाई
बानर कटक उमा में देखा। सो मूरुख जो करन चह लेखा।।
आइ राम पद नावहिं माथा। निरखि बदनु सब होहिं सनाथा।।
अस कपि एक न सेना माहीं। राम कुसल जेहि पूछी नाहीं।।
यह कछु नहिं प्रभु कइ अधिकाई। बिस्वरूप ब्यापक रघुराई।।
ठाढ़े जहँ तहँ आयसु पाई। कह सुग्रीव सबहि समुझाई।।
राम काजु अरु मोर निहोरा। बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा।।
जनकसुता कहुँ खोजहु जाई। मास दिवस महँ आएहु भाई।।
अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएँ। आवइ बनिहि सो मोहि मराएँ।।

दोहा/सोरठा

1.4.21

चौपाई
नाइ चरन सिरु कह कर जोरी। नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी।।
अतिसय प्रबल देव तब माया। छूटइ राम करहु जौं दाया।।
बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी। मैं पावँर पसु कपि अति कामी।।
नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा।।
लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया।।
यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई।।
तब रघुपति बोले मुसकाई। तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई।।
अब सोइ जतनु करहु मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई।।

1.4.20

चौपाई
चरन नाइ सिरु बिनती कीन्ही। लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही।।
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना।।
सुनु हनुमंत संग लै तारा। करि बिनती समुझाउ कुमारा।।
तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना।।
करि बिनती मंदिर लै आए। चरन पखारि पलँग बैठाए।।
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा। गहि भुज लछिमन कंठ लगावा।।
नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं। मुनि मन मोह करइ छन माहीं।।
सुनत बिनीत बचन सुख पावा। लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा।।
पवन तनय सब कथा सुनाई। जेहि बिधि गए दूत समुदाई।।

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