1.1.97

चौपाई
नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा।।
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा।।
साचेहुँ उन्ह के मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया।।
पर घर घालक लाज न भीरा। बाझँ कि जान प्रसव कैं पीरा।।
जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी।।
अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता।।
करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू।।
तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका।।

छंद
जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं।।
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं।।
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं।।

दोहा/सोरठा
तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत।।97।।

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