1.1.245

चौपाई
प्रभुहि देखि सब नृप हिंयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे।।
असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं।।
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला।।
अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई।।
बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी।।
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा।।
एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ।।
यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने।।

दोहा/सोरठा
सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।।
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे।।245।।

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