1.1.272

चौपाई
लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।
का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें।।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही।।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।
सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।

दोहा/सोरठा
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।272।।

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