चौपाई
बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई।।
तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी।।
सखि जस राम लखनकर जोटा। तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा।।
स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए।।
कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे।।
भरतु रामही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी।।
लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा।।
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं।।
छंद
उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं।।
पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं।।
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं।।
दोहा/सोरठा
कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।
सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ।।311।।