1.1.347

चौपाई
धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ।।
सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं।।
मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे।।
प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि।।
दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा।।
सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी।।
समउ जानी गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा।।
सुमिरि संभु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा।।

दोहा/सोरठा
होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ।
बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ।।347।।

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